कलमा तय्यबा की हक़ीकत


हक पहला ख़त जो कि सरकार गरीब नवाज़ ने अपने अव्वल खलीफा और जा-नशीन सरकार ख़्वाजा कुतबुद्दीन बा-इख्त्यार काकी कु.सि.अ. को लिखा !

मोहब्बत:- जिनको यकीन हो गया उनके हमराज-भाई ख़्वाजा कुतबुद्दीन देहलवी, रब्बुल आलामीन हर काम में तुम्हारी राहनुमाई फरमाये -तरफ से-फकीर मोइनुद्दीन चिश्ती।

कलमा तय्यबा की हक़ीकत

जान लो-समझ लो के तौहीद (अल्लाह के एक होने को जानना) के बारे में कुछ राज और हिदायत के कुछ खास और बारीक इशारे इस खाकसार को बारगाहे रसुले खुदा हजरत अहमदे मुज्तबा मोहम्मद मुस्तफा स.अ.व. से रूहानी फैज़ के तौर पर हासिल हुए है जिन पर मेरा पूरा भरोसा और यकीन है इन्हें बहुत गौर से सुनो और समझ लो।

एक रोज का वाक्या है के सरकारे दो आलम, हजरत अबु-बकर, हजरत उसमान, हजरत अली, हजरत इमाम हसन,हजरत इमाम हुसैन, हजरत अनस, हजरत अब्दुल्लाह बिन मसुद, हजरत खालिद, हजरत बिलाल और बाकी खास असहाबियों (सोहबत मे रहने वालों) से अल्लाह तआला की पहचान करने के बारे में गहरी हकीकत और छुपे हुए राज बयान फरमा रहे थे लेकिन हजरत उमर इस मजलिस में हाजिर ना थे अभी सरकारे दो आलम अल्लाह तआला की पहचान करने के बारे में तरीके और गहरे राज और हकीकत ब्यान ही फरमा रहे थे इतने में हजरत उमर भी इस मजलिस में हाजिर हुए, सरकारे दो आलम ने अपनी जुबान को इशारा करके कहा “ए जुबान अब बस कर दे” कुछ असहाबियों को तआज्जुब हुआ और उनके दिल में ये ख्याल पैदा हुआ के शायद सरकारे दो आलम हजरत उमर को ये अल्लाह तआला की पहचान करने के गहरे राज बताना नहीं चाहते। हजरत अबु-बकर और बाकी के नजदीकी असहाबियों ने सरकारे दो आलम की खिदमत में ये अर्ज किया कि ये कया मामला है? कि अभी जो आप अल्लाह तआला की पहचान और गहरी हकीकतें ब्यान ‘फरमा रहे थे वो गहरी राज़दार बातें आपने हजरत उमर से छुपा ली।

सरकारे दो आलम ने फरमाया के मैंने उमर से कोई राज़ छुपाया नहीं है बल्कि बात ये है के अगर दूध पीने वाले मासूम बच्चे को भारी खाना-गोश्त, हलवा या तली हुई चीजें खिलाई जाये तो वो खाना उस मासूम बच्चे के लिये नुकसान देने वाला बन जाता है लेकिन जब वो बच्चा जवान हो जाये तो उसे वो चीजें खिलाई जा सकती हैं।

अब सरकारे दो आलम हजरत उमर से उनकी अन्दर की समझने की काबलियत के मुताबिक उनसे कुछ और अल्लाह की पहचान के राज़ ब्यान करने लगे और मकामे जबरूत वा मकामे लाहूत की हकीकतें और बारिकियाँ समझाने लगे।

सरकारे दो आलम ने फरमाया ए उमर जिस शख्स को अल्लाह तआला की पहचान हासिल हो जाती है उस को मुँह से अल्लाह-अल्लाह कहने और दोहराने की जुरूरत नहीं रहती और जो मुँह से अल्लाह-अल्लाह कहता है तो समझ लो कि उसे अभी अल्लाह की पहचान नहीं हुई है।

हजरत उमर ने अर्ज किया के हजरत ये कैसी अल्लाह की पहचान हुई के इन्सान अपने मालिक का नाम ही न ले और उसकी याद को छोड दे? सरकारे दो आलम ने जवाब दिया के कुरान में अल्लाह तआला ने फरमाया “मैं तुम्हारे साथ हूँ जहाँ कहीं भी तुम हो”

बस ए उमर जो हर वक्त हमारे साथ हो और कभी नज़र से ओझल न हो उसका याद करना क्यों जरूरी है।

हजरत उमर ने अर्ज किया, अल्लाह तआला हमारे साथ कहाँ है?

सरकारे दो आलम ने जवाब फरमाया के “ इन्सान के

दिल में” हजरत उमर ने अर्ज़ किया, के इन्सान का दिल कहाँ है

सरकारे दो आलम ने फरमाया के इन्सान के कल्ब में-लेकिन याद रहे-दिल दो किस्म का होता है एक नकली दिल और एक हकीकी दिल। ए उमर हकीकी दिल वो है जो ना दाहिनी तरफ है ना बायी तरफ, ना उपर की तरफ है ना नीचे की तरफ, ना दूर है ना करीब, लेकिन इस असली दिल की पहचान कोई आसान काम नहीं है इसकी पहचान हो जाना बस कुछ उन लोगों का हिस्सा है जो हमेशा अल्लाह की खिदमत में हाजिर रहते है। क्योंकि पूरा और हकीकत में सच्चा, अन्दर से ईमान वाला (मोमिन हकीकत में अर्श ही होता है) “मोमिन का (कल्ब) अल्लाह का अर्श है। ”

इसलिये सरकारे दो आलम ने फरमाया मोमिन (ईमान वाले) के दिल मे हमेशा खुफिया ज़िक्र (हमेशा, अन्दर मौजूद जिक्र) कायम रहता है इसलिये ईमान वाले को हमेशा की जिन्दगी (ना खृत्म होने वाली) जिन्दगी हासिल हो जाती है और मुसलमान का दिल इस किस्म के ज़िक्र से नावाकिफ और गाफिल होता है इसलिये वो हकीकत में मुर्दो में गिना जाता है।

फिर हजरत उमर ने सवाल किया के या रसूलल्लाह। मोमिन और मुसलमान में कया फर्क है? हुजूर सरकारे दो आलम ने जवाब दिया के मोमिन अल्लाह को देख लेने वाला, जान लेने वाला और पहचान लेने वाला होता है और उसमें ये खासियत होती है के ज़्यादातर खामोश और अन्दर से यादे इलाही (अल्लाह की याद) में डूबा रहता है और आम मुसलमान कोशिश करने वाला और अन्दर से सूखा होता है।

इसके बाद सरकारे दो आलम ने फरमाया-मोमिन वो नहीं हैं जो मस्जिदों मे जमा होते हैं और सिर्फ जुबान से “ला इलाह इल्लल्‍लाह” कहते है। ए उमर – ऐसे कलमा पढ़ने वाले जो कि कलमे की हकीकत को ही नहीं जानते और कलमे के असली मायने से ही बेखबर हैं वो मोमिन नहीं है बल्कि मुनाफिक (दिल में कुछ और बाहर और कुछ,-फर्क रखने वाले) हैं। क्योंकि जुबान से तो ये कलमा “ला इलाह इल्लल्‍लाह” का इकरार करते हैं लेकिन कलमे के असली मायने और हकीकत को नहीं जानते। इन्हें खाक भी पता नहीं के कलमे का असली मकसद और तकाजा क्या है? कलमा क्या चीज है? यानि “नहीं है कोई इबादत के लायक अल्लाह के सिवा” इसको जुबानी तौर पर तो कह देते हैं लेकिन इनको ये खुबर ही नहीं के कलमे मे किस चीज़ को मना किया गया है और किस चीज़ को साबित किया गया है। ऐसा कलमा पढ़ना जिसमें शक भरा हो शिर्क है और शिर्क और शक कुफ्र है बस ऐसे कलमा पढ़ने वाले काफिर है क्योंकि इन्हें ये नहीं मालूम के कलमे में किस को मना किया गया है और किस को साबित किया गया है।

हजरत उमर ने फिर अर्ज किया के फिर कलमा-ए-तय्यब का असली मकसद क्या है?

जनाब सरकारे दो आलम ने फरमाया के कलमे के असली मायने ये है के – एक और बस एक – जिसका कोई शामिल नहीं है उसके अलावा दुनिया में कोई मौजूद ही नहीं है और हजुरत मोहम्मद मुस्तफा स.अ.व. मज़हरे खुदा (खुदा को ज़ाहिर करने वाले – खुदा जिनके ज़रिये ज़ाहिर हुआ, – खुदा ने खुद को जाहिर करने के लिये जिन्हें पसन्द किया) है! बस अल्लाह और उसके दीदार की चाहत रखने वाले को चाहिये के “अल्लाह के सिवा कोई है” इसका ख्याल भी ना आने दे और बस एक और सिर्फ एक अल्लाह को हर जगह मौजूद समझे इसलिये कुरआन में फरमाया गया है “जिधर भी देखो हर तरफ अल्लाह का ही ज़ाहिर होना है ”

‘तजल्ली तेरी जात की सू बा सू है!

जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है!

ऐ उमर! जब सालिक (अल्लाह को पहचानने और जानने की राह पर निकलने वाला) अपनी तमाम सिफात (गुण-खासियत) को गुम और गायब समझे और सिर्फ अल्लाह को ही मौजूद समझे उस वक्त वो सालिक, वो मुरीद, कामिल हो जाता है और अपनी मंजिल और मकसद को पा लेता है। इस मंजिल और मकसद पर पहुँचकर सालिक व मुरीद की हालत ये हो जाती है के वो इस हदीस का सच्चा गवाही देने वाला बन जाता है के “जिसने अपने नफ्स को जान लिया उसने अपने रब को जान लिया और उसकी ज़ुबान गुँगी हो गयी”

मतलब ये है अल्लाह को पूरा जान लेने और पहचान लेने वाले पर अन्दर से खामोशी और सुकून छा जाता है क्योंकि तलब-तड्प-मीठा दर्द-अलग होने-जुदा होने का दर्द तभी तक रहते है जब तक अल्लाह तआला से मिलन नहीं हो पाता, जब मिलन हो जाता है, बूंद सागर मे मिल जाती है फिर तो अल्लाह को जान लेने, पहचान लेने वाला सही मायनों में शहनन्‍शाह हो जाता है उसे अल्लाह के सिवा ना किसी से कोई उम्मीद होती है और ना ही किसी का डर। ऐसे ही लोगों के बारे में अल्लाह तआला ने फरमाया है “औलिया अल्लाह को ना किसी का खौफ है ना किसी का गम”

अल्लाह को जान लेने और पहचान लेने वाले की हालत अल्लाह को याद करने से भी आगे निकल जाती है, ऐ. उमर यकीन जानो के जब तक मुरीद-सालिक, अल्लाह के सिवा किसी गैर के होने का भी ख्याल दिल से ना निकाल दे वो अल्लाह को जान लेने और पहचान लेने की राह पर एक कदम भी नहीं रख सकता और ना ही उसको अल्लाह तआला की पहचान हासिल हो सकती है और याद करना भी एक किस्म की दूरी और दो होना (अलग-अलग होना) है और जिन्होंने अल्लाह को जान लिया उनके मुताबिक दूरी और दुई (दो होना-अलग-अलग होना) कुफ्र है ये है कलमाए तय्यब

की हकीकत !

अहले फना को नाम से हस्ती के नंग है।

लोहे मजार पर भी मेरी छाती पे संग है।

फारिग होकर बैठ फिकर से दोनों जहान की।

खतरा जो है सो आईना-ए-दिल पर जंग है।

जब तक सालिक-मुरीद इस हालत और मुकाम तक ना पहुँच जाए उस वक्‍त तक सालिक-मुरीद सच्चा अल्लाह

को एक जानने वाला नहीं बन सकता और अपने “अल्लाह को एक जानने के दावा करने” में झूठा है – शुक्रिया

सूफी गयासुद्दीन की गुजारिश : दिली दोस्त, मेरे भाई, हमने पढ़ा और देखा और समझा के सरकार गरीब नवाज़ ने अपने रूहानी वारिस और खुलीफा हजरत कुतबुद्दीन बा-इख्तियार को कितने प्यारे और मीठे नामों से पुकार कर खत की शुरूआत की, इन मीठे नामों से पुकारना, साबित करता है उस प्यार और मोहब्बत को जो सरकार गरीब नवाज को अपने जा-नशीन सरकार बा-इख्त्यार काकी से है। आइये हम मिलकर इस रिश्ते की मोहब्बत और मिठास को महसूस भी करते हैं।

सरकार गरीब नवाज अपने रूहानी वारिस सरकार बा-इख्त्यार काकी से कितनी मोहब्बत रखते है इसकी एक दलील ये भी है के सरकार गरीब नवाज ने अपने साहिबजादे सरकार मौलाना फख़रूद्दीन (सलवाड॒-राजस्थान) को खुद खिलाफत ना देकर अपने प्यारे सरकार बा-इख्त्यार काकी से रूहानी इल्म-फैज़ और मकामे खिलाफत अता करवाया – ये मोहब्बत और दलीलें हमारे लिये है के हम इन पर गौर और फ़िक्र करके कुछ सीखें और अपनी जिन्दगी को बेहतरीन बनायें।

अगर हमने सरकार गुरीब नवाज का ये खत गौर से पढ़ा और समझा है तो आगे के अलफाजों से ये भी साबित हो जाता है के सरकारे दो आलम ने कलमा-ए-तय्यबा की हकीकत और तौहीद (अल्लाह के एक होने) की तालीम आम तौर पर नहीं दी-बल्कि असहाबियों की अन्दरूनी ताकत और काबलियत को देखकर उसके मुताबिक इल्म अता किया और भाई ये ही राज़ है और फर्क है इल्मे ज़ाहिर में जिसे हम आम तौर पर किताबी इल्म कहते हैं और इल्मे बातिन (अन्दर के इल्म) में। इसके बारे में हजरत सुलतान बाहू ने फरमाया के बाहर का इल्म छिलके जैसा और अन्दर का इल्म गृदे जैसा होता है बाहर का इल्म दूध जैसा और अन्दर का इल्म मक्खन जैसा होता है तो बस ये साबित हो गया और हमें समझ लेना चाहिये कि इल्म की दो ही किस्म है एक जाहिरी या बाहर का इल्म – जो किताबों-तकरीरों और बाहर के तरीकों से मिलता है जिससे हम और उलझ जाते है और मंजिल और मकसद पूरा नहीं होता और एक है इल्में बातिन जो कि अन्दर का इल्म कहलाता है ये इन्सान की जिन्दगी को अंदर से बदलकर इन्सान को वहाँ पहुँचाता है जो कि इन्सान का मकसद और मंजिल है यानि अल्लाह तआला की पहचान हो जाना उसे जान जाना।

आगे के अलफाजों और तालीम से हमें ये सीखने को मिलता है के मोमिन और मुसलमान में बहुत बड़ा फर्क है अगर हम गौर फिकर के बाद अपने आपको सिर्फ और सिर्फ रस्मों-रिवाजो तक रहने वाला आम मुसलमान पाते हैं तो हमें सरकार गरीब नवाज़ की तालीम को मानकर मोमिन बनने की कोशिश करनी होगी और सिर्फ रस्मी तौर पर कलमा पढ़ने और बाकी के काम निपटाने की बजाय, हर चीज़ की गहराई में जाकर उसे समझना होगा, अपने आप को अन्दर से पाक करना होगा-रस्मों रिवाज को मज़हब समझने की भूल छोड़नी पड़ेगी और इल्मे बातिन (अन्दर का इल्म) सीखना और पाना होगा। हमें ये भी समझना होगा के हमारे पास हकीकी मुसलमान और मोमिन होने की क्या दलीलें और सुबूत है क्या हम वैसे इन्सान है जैसे इन्सानों को अल्लाह तआला पसंद फरमाता है?

शुक्रिया.